“क्या उत्तर प्रदेश का जनसुनवाई पोर्टल अब न्याय नहीं, सिर्फ़ दिखावा बन चुका है?
फर्जी निस्तारण और ‘विशेष समापन’ की परतों को खोलती एक विस्फोटक रिपोर्ट-
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झांसी से महराजगंज तक की हकीकत सामने है….
बॉर्डर न्यूज़ लाइव, उत्तर प्रदेश
झांसी/महराजगंज। जनसुनवाई पोर्टल को ‘जनकल्याण’ का उपकरण बताया गया था। लेकिन जो तस्वीरें सामने आ रही हैं, वे इसे ‘जनदुखाई मंच’ बना देती हैं जहाँ समस्याओं का समाधान नहीं, सिर्फ़ ‘फॉर्मल निस्तारण’ होता है। यह खबर अब सिर्फ एक भ्रष्ट प्रकरण की रिपोर्टिंग नहीं है, बल्कि यह एक प्रणालीगत संकट की ओर इशारा करती है – जहां शासन, तकनीक और पारदर्शिता का दावा करने वाली प्रणाली खुद ‘अविश्वास’ का प्रतीक बन रही है।
1. डिजिटल पारदर्शिता बनाम डिजिटल दिखावा
ई-गवर्नेंस के नाम पर सिर्फ़ एक ऑनलाइन मंच बना देना काफी नहीं होता। जब उस मंच पर कार्यवाही की कोई निगरानी न हो, और शिकायतकर्ता की बात सुने बिना ‘विशेष समापन रिपोर्ट’ लग जाए, तो यह पारदर्शिता नहीं, डिजिटल धोखा है।
2. AI और ऑटोमेशन के ज़माने में भी फिजिकल सत्यापन ग़ायब
राज्य के पास टेक्नोलॉजी की ताकत है, लेकिन अधिकारियों ने उसका उपयोग केवल फाइलें बंद करने और रैंकिंग सुधारने में किया। शिकायतकर्ता से संपर्क किए बिना, स्थल का निरीक्षण किए बिना निस्तारण कर देना – ये सिर्फ़ लापरवाही नहीं, बल्कि जानबूझकर की गई उपेक्षा है।
3. स्पेशल क्लोजर रिपोर्ट: अफसरशाही के लिए बुलेटप्रूफ जैकेट?
इस तरह की रिपोर्टों ने अधिकारियों को पूर्ण जवाबदेही से बचने का रास्ता दे दिया है। इसमें ना सिर्फ़ शिकायतकर्ता का पक्ष सुना नहीं जाता, बल्कि उसे जवाब देने का मौका भी नहीं मिलता। इस व्यवस्था में अधिकारी तो सुरक्षित हैं, पर आमजन पूरी तरह असुरक्षित।
4. CM रैंकिंग की दौड़:
‘नंबर गेम’ बनाम ‘न्याय गेम’अब शिकायतों का उद्देश्य समाधान नहीं, बल्कि मुख्यमंत्री पोर्टल की रैंकिंग में अंक अर्जित करना बन चुका है। ज़िले व विकासखंड स्तर पर अधिकारी सिर्फ़ संख्या सुधारने में लगे हैं, न कि शिकायतों के निष्पक्ष निस्तारण में।
अब जानते है विस्तार से ….
“आईजीआरएस : पारदर्शिता की नकाब में फर्जी निस्तारण का खेल?”
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा शुरू किया गया जनसुनवाई पोर्टल शासन और जनता के बीच एक सेतु की भांति था, जिसका उद्देश्य था कि नागरिकों की समस्याएं, शिकायतें और सुझाव सीधे शासन तक पहुँचे और उन पर समयबद्ध, निष्पक्ष और प्रभावी कार्यवाही हो। यह डिजिटल युग में ई-गवर्नेंस की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पहल मानी गई थी। लेकिन वर्तमान में जिस तरह से इस पोर्टल का उपयोग हो रहा है, उसने इसके औचित्य पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है।
झांसी प्रकरण: जहां न्याय की जगह औपचारिकता ने ले ली:
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झांसी की प्रशासनिक अधिकारी डॉ. पुष्पा गौतम का मामला इस पूरी प्रणाली की गम्भीर खामियों को उजागर करता है। उन्होंने उत्पीड़न की शिकायत विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ शिक्षक व महिला सहयोगी के खिलाफ की थी, जो गंभीर व्यक्तिगत और मानसिक उत्पीड़न का आरोप था। लेकिन झांसी पुलिस ने बिना किसी गहन जाँच, दोनों मामलों का एक जैसा उत्तर तैयार कर दिया, और जिस पर शिकायतकर्ता की जगह किसी अन्य महिला की तस्वीर लगा दी गई।
यह न केवल गंभीर लापरवाही थी बल्कि इससे शिकायतकर्ता की निजता, गरिमा और न्याय की आशा – तीनों पर गहरा आघात हुआ। मामला सार्वजनिक होने पर तीन पुलिसकर्मियों को निलंबित तो किया गया, लेकिन क्या यही पर्याप्त है? क्या इस घटना ने प्रदेश भर में हो रही जनसुनवाई निस्तारण प्रक्रिया की असलियत उजागर नहीं कर दी?
महराजगंज की तस्वीर: ‘सुनवाई’ बिना ही निस्तारण:
झांसी की तरह महराजगंज जनपद, विशेषकर निचलौल विकासखंड के अंतर्गत आने वाले गाँवों से भी एक जैसी कई शिकायतें मिलती हैं। उदाहरण के लिए, ठूठीबारी क्षेत्र में एक प्राथमिक विद्यालय के ऊपर से गुजरती हाईटेंशन तारों की शिकायत को अधिकारियों ने गंभीरता से लेने के बजाय ‘अन्य व्यक्ति’ की रिपोर्ट लगाकर निस्तारित कर दिया। यह न केवल जन सुरक्षा की अनदेखी है बल्कि ऐसी लापरवाही भविष्य में किसी दुर्घटना की पृष्ठभूमि बन सकती है।
कई अन्य शिकायतें – जैसे
संदर्भ संख्या 40018725002160, 40018725004248, 41018725000009 आदि। इन सभी का निस्तारण बिना भौतिक सत्यापन, बिना शिकायतकर्ता से संपर्क और बिना प्रमाण के रिपोर्ट लगाकर कर दिया गया।
स्पेशल क्लोजर रिपोर्ट: जिम्मेदारी से भागने का एक आसान रास्ता:
जनसुनवाई पोर्टल पर एक नई प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है जिसे नाम दिया गया है “स्पेशल क्लोजर रिपोर्ट”। यह रिपोर्ट एक बार शिकायत पर लग जाने के बाद शिकायतकर्ता को दोबारा प्रतिक्रिया देने, या रिपोर्ट पर आपत्ति दर्ज करने का अवसर ही नहीं देती। यह एक प्रकार से प्रशासनिक प्रतिरक्षा कवच बन चुका है, जो संबंधित अधिकारी को किसी भी प्रकार की जवाबदेही से मुक्त कर देता है।
प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकार की रिपोर्टें लगाकर अधिकारी केवल मुख्यमंत्री स्तर की रैंकिंग में अंक बढ़ा रहे हैं? क्या यह शासन को भ्रमित करने और फाइलों को ‘क्लोज’ दिखाने का तरीका बन चुका है?
रैंकिंग की होड़ में गुणवत्ता की बलि:
प्रदेश स्तर पर जिलों की जनसुनवाई रैंकिंग प्रणाली ने एक नई प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है। जिलाधिकारी से लेकर खण्ड विकास अधिकारी तक, सभी अब शिकायतों के ‘संख्या अनुसार’ निस्तारण की ओर भाग रहे हैं, न कि गुणवत्ता और निष्पक्षता की ओर। इसके चलते अनेक अधिकारी अपनी छवि सुधारने हेतु शिकायतों को बिना जांच, झूठी रिपोर्टों या अकारण ‘समाप्ति रिपोर्ट’ के माध्यम से बंद कर रहे हैं। इससे न केवल शिकायतकर्ता का विश्वास टूट रहा है बल्कि शासन की नीयत पर भी सवाल उठ रहे हैं।
नागरिकों की स्थिति: भरोसा तोड़ती व्यवस्था:
जो व्यक्ति अपनी समस्या को लेकर शासन के द्वार पर दस्तक देता है, वह पहले ही समाज में असहाय स्थिति में होता है। ऐसे में यदि उसे भी केवल दिखावे का समाधान मिले, तो वह व्यवस्था से निराश, उदासीन और अंततः विरोधी हो जाता है। यह किसी भी लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत है।
एक किसान जो अपनी भूमि पर अवैध कब्जे की शिकायत करता है, या एक शिक्षक जो भ्रष्टाचार का खुलासा करता है, अगर उन्हें ‘प्रक्रियात्मक निस्तारण’ के नाम पर भ्रमित किया जाता है, तो लोकतंत्र की नींव कमजोर होती है।
उपाय और सुझाव: अब नहीं तो कब?
शिकायतकर्ता से अनिवार्य संपर्क:
हर शिकायत का निस्तारण करने से पहले अधिकारी को शिकायतकर्ता से संपर्क करना अनिवार्य किया जाए। यह शासनादेश के रूप में लागू हो।
भौतिक सत्यापन की बाध्यता:
भूमि विवाद, निर्माण कार्य, बिजली, स्वास्थ्य सेवाओं आदि मामलों में निस्तारण से पहले जमीनी सत्यापन अनिवार्य किया जाए।
‘स्पेशल क्लोजर रिपोर्ट’ की पुनः समीक्षा:
एक उच्च स्तरीय समिति का गठन हो जो यह मूल्यांकन करे कि किन परिस्थितियों में इस प्रकार की रिपोर्ट उचित है। साथ ही शिकायतकर्ता को पुनर्विचार की स्वतंत्रता दी जाए।
उत्तरदायित्व तय हो:
गलत, भ्रामक या मनगढ़ंत रिपोर्ट लगाने वाले अधिकारियों पर दंडात्मक कार्यवाही सुनिश्चित की जाए। शिकायतकर्ता को दंडात्मक कार्यवाही की जानकारी भी दी जाए।
रैंकिंग प्रणाली में ‘गुणवत्ता मापदंड’ जोड़ा जाए:
केवल संख्या नहीं, बल्कि ‘संतुष्ट शिकायतकर्ता की संख्या’, ‘जमीनी समाधान’, ‘पुनर्विचार की संख्या’ जैसे मानकों को भी रैंकिंग का हिस्सा बनाया जाए।
जनसुनवाई पोर्टल एक आदर्श विचार है, लेकिन इसे लोगों की आवाज़ का पुल बनाने की बजाय यदि यह आंकड़ों की औपचारिकता में सिमटता गया, तो यह न केवल इस पहल को विफल करेगा, बल्कि शासन की संवेदनशीलता और पारदर्शिता पर भी गहरा प्रश्नचिन्ह खड़ा करेगा। यह ज़रूरी है कि मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और संबंधित विभाग इस मामले को गम्भीरता से लें और जनसुनवाई प्रणाली की पूर्ण समीक्षा कर जनता का विश्वास पुनः बहाल करें।
जनता की आवाज़ को जब तक ईमानदारी से नहीं सुना जाएगा, तब तक कोई भी तंत्र सफल नहीं हो सकता, चाहे वह कितना भी आधुनिक क्यों न हो।
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